Monday 7 September 2009

ना जाने क्यों .....

ना जाने क्यों तेरी आवाज़ सुकुन देती है बहुत
ना जाने क्यों तेरे ख्याल से दिल हो शादाब जाता है
जब भी सोचता हूँ तन्हाई मे जिंदगी की बाबत
चेहरा तेरा मुस्कुराता नज़र के सामने आता है
मुझे मालूम नहीं क्या है तेरा मेरा रिश्ता क्यों कर
तेरी आवाज़ जिस्म से रूह तक उतरती जाती है
क्यों तेरी बातें मुझे अपनी -अपनी सी लगती हैं
क्यों तसव्वुर से तेरे नब्ज मेरी डूबती सी जाती है
आख़िर क्यों मेरे अहसास मेरा साथ नहीं देते
क्यों मेरे जज्बात मेरे होकर भी नहीं मेरे
क्यों मेरा मन हर लम्हा याद करता है तुझको
क्यों मुझे घेरे रहते हैं तेरी चाहतों के घेरे
मेरी जान ! मुझे इसका सबब तो नहीं मालूम
ग़र इल्म हो तुझको तो मुझे भी इत्तला करना
मेरी उम्मीदों को शायद एक यकीन मिल जाये
अंधेरों में हूँ तन्हा ,इस जिंदगी को उजला करना


सर्वाधिकार सुरक्षित @ कवि दीपक शर्मा
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