दिल में जब तक मैं-तू नहीं हम हैं
घर बिखरने के मौके बहुत कम हैं .
कौन खींचेगा भला सेहन में दीवार
प्यार जिंदा हो तो फिर कैसा गम है .
जिस्म की छोडिये बिकने लगी औलादे
तरक्की की राह में यह कैसा ख़म है .
खामियां आज उसकी खूबियाँ हो गई
जेब चाक़ थीं पहले अब खूब दम है .
कतरने चन्द बन गईं औरत का लिबास
तहजीब शर्मिंदा है,शर्म के घर मातम है .
ज़ख्म फिर से सभी जवान होने लगे
बता चारागर तेरा ये कैसा मरहम हैं .
माँ की हंसी संग देखा एक हँसता बच्चा
वाह अल्लाह कितनी सुरीली सरगम हैं .
खेलिए वक़्त से मत खेलने दीजिये इसे
वक़्त का खेल दोस्त बहुत बे- रहम हैं .
चैन-ओ-अमन से जीना ईद के मायने
ज़िन्दगी रोकर बसर करना मोहर्रम है.
हाथ फैला कर संवरेगा वतन का मुक्कदर
उनको यकीन है पर हमें उम्मीद कम है.
राम ही जाने अब सफ़र का अंजाम "दीपक"
टूटती साँसे रहनुमा की और तबियत नम है
सर्वाधिकार सुरक्षित @ कवि दीपक शर्मा
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