Thursday 2 July 2009

आजकल खून में पहली सी रवानी न रही

आजकल खून में पहली सी रवानी न रही
बचपन बचपन न रहा , जवानी जवानी न रही

क्या लिबास क्या त्यौहार,क्या रिवाजों की कहें
अपने तमद्दुन की कोई निशानी न रही

बदलते दौर में हालत हो गए कुछ यूँ
हकीक़त हकीकत न रही , कहानी कहानी न रही

इस कदर छा गए हम पर अजनबी साए
अपनी जुबान तक हिन्दुस्तानी न रही

अपनों में भी गैरों का अहसास है इमरोज़
अब पहली सी खुशहाल जिंदगानी न रही

मुझको हर मंज़र एक सा दीखता है “दीपक ”
रौनक रौनक न रही , वीरानी वीरानी न रही


सर्वाधिकार सुरक्षित @ कवि दीपक शर्मा

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