Sunday, 3 October 2010

राष्ट्रमंडल खेल








बुज़ुर्ग कहते हैं कि बिना आखों देखी बात का भरोसा करना और उस पर अपनी राय कायम कर लेना आदमी की सबसे बड़ी बेबकूफी होती है .हिन्दुस्तानी समाज में एक कहावत कम से कम बच्चा होश सम्हालने के तुरंत बाद सुनना शुरू कर देता है, वो है " कान पर कभी विश्वास मत करो या सुनी -सुनाई बातों का भरोसा कभी मत करो . लेकिन हम भारतीय इन बातों को सिर्फ दूसरों पर इस्तेमाल करने के लिए ही सुनते हैं.अपनी असल ज़िन्दगी में इन पर अमल करने का सवाल ही नहीं पैदा होता.
एक और चीज़ में हमे महारत हासिल है वो है किसी की भी बखिया उधेड़ने की.चाहें कोई भी विषय हो ,कैसा भी मुद्दा हो,किसी का भी ज़नाज़ा निकालने का हमे विरासत में मिला हुनर है. हम बहुत ही सहेजता से अपनी बात को लोगों तक पहुँचाने का लोभ त्याग नहीं पाते और चाँद की चांदनी की प्रशंसा करने की वजाय उसके धब्बे देखना पसंद करते हैं. मतलब सारी बातों का लब्बो-लुआब ये है कि कमियाँ ,मीन-मेख निकालने में अपना कोई सानी नहीं है.जिसकी चाहें उसकी बुराई करवा लो और जितनी चाहे उतनी . हम शायद धनात्मक बात करना भूल से गए हैं ...क्या आपको नहीं लगता ?.कम से कम मुझे तो ऐसा लगता है ... वक़्त मुझे गलत साबित करदे तो ख़ुशी होगी !!!!!!!
हम अपनी उन्नति पर गर्व करने कि वजाय उस पर शर्मिंदा होते है . अपनी उन्नति में भी निंदा के कारण आदतन ढूँढ ही लेते हैं कियोंकि ये हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है और हम लोकतांत्रिक देश के नागरिक हैं इसलिए कुछ भी कहीं भी कह सकते हैं . लेकिन यह आदत हमारे ही लिए अच्छी नहीं है कि हम अपनों की गलतियां निकाल कर उसे सार्वजनिक तौर पर नुमाया करें . चाहे बात घर की हो , गली की हो ,शहर की या फिर देश की . बदनामी और कलंक कभी भी नहीं मिटता .हर घटना एक इतिहास बन जाती है और जीवन भर ख़ुद को ही कचोटती रहती है. अपनी ग़ज़ल के दो शेर कहना चाहूँगा इसी विषय के सन्दर्भ में-
"मेरी ख़ामियां न देख ,मुझमे अच्छाइयाँ तलाश
मैं बुरा ही सही ,तू तो अच्छा इंसान बन जा .
तेरा सवाल है ग़र मुझमे कोई अच्छाई नहीं
मुझे शैतान कह दे और ख़ुद भगवान् बन जा.
यह सब बात मैंने इसलिए कही कि पिछले १० महीनो से हम हर चर्चा में एक ही बात पढ़ ,सुन ,देख रहे हैं कि राष्ट्रमंडल खेल देश को शर्मिंदा कर रहे हैं . हमारा विकास नहीं हो पा रहा सही दिशा में ...रिश्वत का बोलवाला है.ख़र्चा कई सो गुना बड़ गया है अपनी निर्धारित धन सीमा से . क्या हम सफल आयोजन कर पायेंगे ? क्या देश कि साख बच जायेगी ? फलां देश के खिलाड़ी ने आने से मना कर दिया ..फलां देश का नुमाइंदा आकर पहले देखेगा कि रिहाइश के कैसे इन्तिजामात हैं ....अरे जिन लोगों कि औकात नहीं है सामने खड़े होने की वो भी सवाल पूछ रहे हैं..जो अपने घर में २ वक़्त की रोटी नहीं ठीक से खा-खिला सकते वो हमारे छप्पन भोग में कमी निकालने लग जाएँ ..सोचो कैसा लगेगा.. और तो और घर का ही अपने कोई सदस्य बताये कि" भैया खीर में गुड कम है "...ख़ुद सोचो कि मन में कैसा तूफ़ान आएगा .दिल कैसा खून के आंसू रोयेगा .....
लेकिन हमारे अपनों की तो हर लीला न्यारी है ...जयचंद न होते तो पृथ्वीराज न मरते. जिस में खाना ..उसी में छेद करना और गुप्त बातों को भी ढिंढोरा पीट -पीट कर बताना अपनी लोकतांत्रिक संस्कृति का हिस्सा जो ठहरा.
अपने देश को जाने कितने यतन से खेलों के आयोजन का मौका मिला ...लगभग २८ सालों के अंतराल के बाद दिल्ली फिर गौरवान्वित हुई है इस कुम्भ को आयोजित करके.
हमारे देश की जटिल प्रक्रियाओं से गुज़र कर किसी भी समारोह का विश्वस्तरीय आयोजन करना किसी भी भागीरथी प्रयास से हम नहीं हैं ...जहाँ जीने के लिए मूलभूत सुविधाएं नहीं हैं वहां पर शहर को विश्वस्तरीय रूप देना किसी भी तरह से कमतर नहीं आंका जाना चाहिए. इसके लिए जिनती भी दिल्ली राज्य सरकार ,खेल मंत्रालय ,आयोजन समिति , केंद्र सरकार की प्रशंसा की जाए बहुत की कम है. दिल्ली सरकार की वजीर-ऐ-ख़ास मोहतरमा शीला दीक्षित जी ने जिस दिलेरी और जोश के साथ इस काम को अपने हाथों में लेकर ,जूनून और दानिशमंदी से मुकाम हासिल करवाया है वो वाकई काबिल-ऐ-तारीफ़ हैं .
दिल्ली का ये रूप शायद कितने साल बाद देखने को मिलता ?
सांप निकला ,कुत्ता सोया,हमाम में गंदगी , बिस्तर ठीक नहीं है .....ये सवालात , ये कमियाँ मेरी नज़र में कोई मायने नहीं रखती अगर आप हाथी पालेंगे तो लीद तो होना लाजिम है मेरे भाई .
लेकिन हकीकत तो कुछ और है जो साथ में लगी तस्वीर ख़ुद व ख़ुद कह रहीं हैं .
खेल करने नहीं चाहिए थे .. रिश्वतखोरी हुई है ..करोड़ों का घपला है ,गरीब देश हैं हम ...यह सब फ़िज़ूल की बाते हैं इस समय . मेहमान घर में आये हुए हैं.उनको मेहमान बनकर रहने दो .ख़ुद भी मेजवानी करो .अपनी फटी चादर आपस में बैठ कर सी लेंगे जब मेहमान घर से विदा हो जायेंगे . खूब जूतम-पैजार कर लेंगे लेकिन बाद में. घोड़ों की दौड़ का शौक़ है तो घोड़े पालने भी होंगे ..अस्तबल भी बनाना पड़ेगा ...साईस भी रखना होगा . वरना पैदल ही चलो? कम से कम रौशनी पाने के लिए तेल और बाती जलाने होंगे ........अपने काव्य शब्दों में कहूं तो ----
"सदा बदलाव का दुनिया विरोध करती है
और फिर बाद में उसी पे शोध करती है
उसी लहर ने बढाई है और ज्यादा रवानी
जो पहलोपहल नदिया का प्रतिरोध करती है .
राजनीति भी होती रहेगी . मुद्दे भी उछालते रहेंगे ..बायकाट भी कर देंगे लेकिन बाद में ..अभी तो देश की इज्ज़त का सवाल है ...किसी भी तरह से कम नहीं होनी चाहिए ...बहुत टोपियाँ उछाल लीं .बहुत तमाशे हो गए .बहुत राजनीति हो गई. अब सब बातें भूलनी होंगी.
हमारी दिल्ली का चेहरा ही बदल गया ,किसी अप्सरा से कम नहीं लग रही है आजकल .खुदा किसी भी बदनुमा दाग से बचाए रखे ...हम सबको अपने देश की लाज रखनी हैं . हमारी सेना,सुरक्षा कर्मी ,सरकारी महकमे सब जी जान से रात -दिन एक किये हुए हैं ..ताकि ये आयोजन सफल हो जाए और हिन्दुस्तान को जल्दी ओलिम्पिक खेलों के आयोजन का जल्दी सुनहरा मौका मिले.
@कवि दीपक शर्मा
+91 9971693131

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