Sunday, 1 March 2009
ग़ज़ल
मेरे हाथों से तेरा हाथ यूँ छूटता गया ,
जैसे सितारा फलक से टूटता गया ।
गम ये नही की लुट गई हसरते - हयात
ग़म है जिसे नहीं लूटना था लूटता गया ।
बदकिस्मती कहूँ इसे या और कुछ कहूँ
जिसको भी दिल ने चाहा वही रूठता गया ।
मिलने थे जहाँ साये बिछुडे वहां पर हम
साहिल पे बदनसीब कोई डूबता गया ।
हंसती रही हयात मगर रोते रहे जज़्बात
अन्दर ही अन्दर दरख्त कोई सूखता गया
सारे जहाँ का "दीपक" इतना अफसाना है
गुल टूटता गया और गुंचा फूटता गया ।
(उपरोक्त ग़ज़ल काव्य संकलन falakdipti से ली गई है )
जैसे सितारा फलक से टूटता गया ।
गम ये नही की लुट गई हसरते - हयात
ग़म है जिसे नहीं लूटना था लूटता गया ।
बदकिस्मती कहूँ इसे या और कुछ कहूँ
जिसको भी दिल ने चाहा वही रूठता गया ।
मिलने थे जहाँ साये बिछुडे वहां पर हम
साहिल पे बदनसीब कोई डूबता गया ।
हंसती रही हयात मगर रोते रहे जज़्बात
अन्दर ही अन्दर दरख्त कोई सूखता गया
सारे जहाँ का "दीपक" इतना अफसाना है
गुल टूटता गया और गुंचा फूटता गया ।
(उपरोक्त ग़ज़ल काव्य संकलन falakdipti से ली गई है )
ग़ज़ल
साँस जाने बोझ कैसे जीवन का जीती रही
नयन बिन अश्रु रहे पर ज़िन्दगी रोती रही ।
एक नाजुक ख्वाब का अंजाम कुछ ऐसा हुआ
मैं तड़पता रहा इधर वो उस तरफ रोती रही ।
भूख, आंसू और गम ने उम्र तक पीछा किया
मेहनत के रुख पर जर्दियाँ, तन पे फटी धोती रही ।
उस महल के बिस्तरे पर रोते रहे कुत्ते - बिल्लियाँ
धूप में पिछवाड़े एक बच्ची छोटी रोती रही ।
आज तो उस मां ने जैसे - तैसे बच्चे सुला दिए
कल की फ़िक्र पर रात भर दामन भिगोती रही ।
तंग आकर मुफलिसी से खुदकुशी कर ली मगर
दो गज कफ़न को लाश उसकी बात जोहती रही ।
'दीपक' बशर की ख्वाहिशों का कद इतना बढ गया
ख्वाहिशों की भीड़ में कहीं ज़िन्दगी खोती रही ।
( उपरोक्त ग़ज़ल काव्य संकलन मंज़र से ली गई है )
नयन बिन अश्रु रहे पर ज़िन्दगी रोती रही ।
एक नाजुक ख्वाब का अंजाम कुछ ऐसा हुआ
मैं तड़पता रहा इधर वो उस तरफ रोती रही ।
भूख, आंसू और गम ने उम्र तक पीछा किया
मेहनत के रुख पर जर्दियाँ, तन पे फटी धोती रही ।
उस महल के बिस्तरे पर रोते रहे कुत्ते - बिल्लियाँ
धूप में पिछवाड़े एक बच्ची छोटी रोती रही ।
आज तो उस मां ने जैसे - तैसे बच्चे सुला दिए
कल की फ़िक्र पर रात भर दामन भिगोती रही ।
तंग आकर मुफलिसी से खुदकुशी कर ली मगर
दो गज कफ़न को लाश उसकी बात जोहती रही ।
'दीपक' बशर की ख्वाहिशों का कद इतना बढ गया
ख्वाहिशों की भीड़ में कहीं ज़िन्दगी खोती रही ।
( उपरोक्त ग़ज़ल काव्य संकलन मंज़र से ली गई है )
ग़ज़ल
जिस पर मुझे जरूरत से ज्यादा गुमान था
दिल उस शख्श का बहुत बेईमान था ।
बिखरा हुआ पढ़ा था एक साया उसके पास
कोई अजनबी नहीं वो मेरा अरमान था ।
कहकहों में बज्म के दब गई सिसकी मेरी
मामूली थी हस्ती मेरी , बहुत छोटा निशान था ।
खुश था जिसे फूंककर मज़हबी जूनून में
बाद में मालुम हुआ वो मेरा मकान था ।
दोस्ती भी दोस्तों ने निभाई तो किस जगह
बस जिंदगी से चार कदम दूर शमशान था ।
भूख का कोई कहीं मज़हब 'दीपक' होता नहीं
काफिर के साथ खा गया जो मुसलमान था ।
( उपरोक्त ग़ज़ल काव्य संकलन मंज़र से ली गई है )
दिल उस शख्श का बहुत बेईमान था ।
बिखरा हुआ पढ़ा था एक साया उसके पास
कोई अजनबी नहीं वो मेरा अरमान था ।
कहकहों में बज्म के दब गई सिसकी मेरी
मामूली थी हस्ती मेरी , बहुत छोटा निशान था ।
खुश था जिसे फूंककर मज़हबी जूनून में
बाद में मालुम हुआ वो मेरा मकान था ।
दोस्ती भी दोस्तों ने निभाई तो किस जगह
बस जिंदगी से चार कदम दूर शमशान था ।
भूख का कोई कहीं मज़हब 'दीपक' होता नहीं
काफिर के साथ खा गया जो मुसलमान था ।
( उपरोक्त ग़ज़ल काव्य संकलन मंज़र से ली गई है )
ग़ज़ल
तेरी हर बात पे हम ऐतबार करते रहे
तुम हमें छलते रहे,हम तुमसे प्यार करते रहे ।
तुम हमें छलते रहे,हम तुमसे प्यार करते रहे ।
कोशिशें करते तो शायद मंजिले मिल जाती
मगर अफ़सोस तुम वादे हज़ार करते रहे ।
नाम भी मेरा उन्हें याद तक नहीं आया
जिनको अपनों मे हम शुमार करते रहे ।
मुझको मालूम था तुम नहीं आओगे फिर भी
एक उम्मीद सी लिए इन्तिज़ार करते रहे ।
ज़िन्दगी यूँ तो गुज़र रही है पहले की तरह
पर घाव पिछले कुछ जीना दुश्वार करते रहे ।
याद आते ही तुम्हारी सीने के समंदर से
अश्क भर -भर के नयन बौछार करते रहे ।
एक घर में कहकहे और शहनाई की आवाज़
'दीपक' अरमान मेरा तार - तार करते रहे
( उपरोक्त ग़ज़ल काव्य संकलन मंज़र से ली गई है )
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