Sunday, 1 March 2009

ग़ज़ल

साँस जाने बोझ कैसे जीवन का जीती रही
नयन बिन अश्रु रहे पर ज़िन्दगी रोती रही ।

एक नाजुक ख्वाब का अंजाम कुछ ऐसा हुआ
मैं तड़पता रहा इधर वो उस तरफ रोती रही ।

भूख, आंसू और गम ने उम्र तक पीछा किया
मेहनत के रुख पर जर्दियाँ, तन पे फटी धोती रही ।

उस महल के बिस्तरे पर रोते रहे कुत्ते - बिल्लियाँ
धूप में पिछवाड़े एक बच्ची छोटी रोती रही ।

आज तो उस मां ने जैसे - तैसे बच्चे सुला दिए
कल की फ़िक्र पर रात भर दामन भिगोती रही ।

तंग आकर मुफलिसी से खुदकुशी कर ली मगर
दो गज कफ़न को लाश उसकी बात जोहती रही ।

'दीपक' बशर की ख्वाहिशों का कद इतना बढ गया
ख्वाहिशों की भीड़ में कहीं ज़िन्दगी खोती रही ।

( उपरोक्त ग़ज़ल काव्य संकलन मंज़र से ली गई है )

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